Home » Philosophy » Hindu » मारणपात्र: योग तंत्र के गूढ़-गोपनीय एवं रहस्यमय आध्यात्मिक विषयों के मर्मज्ञ, प्रच्छन्न अप्रच्छन्न, सिद्ध, साधक योगी, संत, महात्माओं के सत्संग का परिणाम

मारणपात्र: योग तंत्र के गूढ़-गोपनीय एवं रहस्यमय आध्यात्मिक विषयों के मर्मज्ञ, प्रच्छन्न अप्रच्छन्न, सिद्ध, साधक योगी, संत, महात्माओं के सत्संग का परिणाम (Paperback)



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ISBN-13: 9788190679633
Language: Hindi

This book is available in following formats:
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600.00

Publsiher: Astha Prakashan Varanasi

Publication Date: 06 Dec, 1992

Pages Count: 571 Pages

Weight: 700.00 Grams


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About the Book:

मनुष्य की आत्मा एक ऐसी वस्तु है जो निरन्तर ज्ञान की ओर बढ़ती रहती है, क्योंकि उसका एकमात्र भोजन है ज्ञान। यदि हम उसके मूल निर्देश और संकेत को समझने का प्रयत्न करें तो जीवन अपने आप सही दिशा में बढ़ता जायेगा। अपने आप हम सही मार्ग पर चलते जायेंगे। सच तो यह है कि आत्मा की सारी प्रक्रियाएँ हमारे जीवन निर्माण के लिए है, हमें पशु से मनुष्य बनाने के लिए है। मनुष्य बनने का अर्थ है, मानवयोनि में देवत्व लाभ।

जिसने आत्मा को समझा, उसके मूक संकेत को समझा और उसकी मूल पद ध्वनि को सुना, वास्तव में उसी के जीवन का सच्चे अर्थो में निर्माण होता है। आत्मा 'सत्य' है, परमात्मा 'परम सत्य' है। हम दुःखी इसलिए हैं कि हम न सत्य से परिचित हैं और न तो 'परम सत्य' से। 'सत्य' जीवन, जगत और आत्मा, परमात्मा का प्राण है। उनके अस्तित्व का भी अस्तित्व है। सत्य की खोज नहीं की जाती। 'खोज' शब्द उसके लिए व्यर्थ है। वास्तव में खोज सत्य की नहीं, बल्कि असत्य की होती है। खोज तो उस वस्तु की होती है जो हमारे पास नहीं है और जिसकी हमें आवश्यकता है। खोज उसकी नहीं हो सकती जो हमारे पास और हमारे करीब है। किसी वस्तु को खोजने के लिए 'दो की आवश्यकता पड़ती है पहली खोजनेवाले की, दूसरी जिसकी खोज हो। मगर जहाँ तक 'सत्य' की बात है वहाँ दोनों एक ही हैं। जैसे नृत्य से नृत्यकार को, मूर्ति से मूर्तिकार को और कला से कलाकार को अलग नहीं किया जा सकता और न तो समझा जा सकता है, उसी प्रकार सत्य को और सत्य खोजनेवाले को भी न अलग किया जा सकता है और न तो समझा ही जा सकता है।

हमारे जीवन के दो छोर हैं बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी। बहिर्मुखी जीवन में प्रकाश है, लेकिन अन्तर्मुखी जीवन घोर अन्धकारमय है। आँखें बन्द करते ही उसका हमें अनुभव होता है। हमारी सारी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं। मन भी बाहर भटकता रहता है। बाहर प्रकाश है। इन्द्रियों के साथ मन बाहर प्रकाश में सत्य को खोजने का प्रयास करता है। भीतर का जो अन्तमुखी जीवन है वहाँ न इन्द्रियाँ काम करती हैं और न तो मन ही झाँकता है। जहाँ तक हमारी इन्द्रियों की सीमायें हैं और जहाँ तक हमारा मन भाग दौड करता है वहीं तक हम खोज कर सकेंगे।

पंडित अरुण कुमार शर्मा

 

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